कुग्रामवासः कुलहीन सेवा कुभोजन क्रोधमुखी च भार्या। पुत्रश्च मूर्खो विधवा च कन्या विनाग्निमेते प्रदहन्ति कायम्॥
दुष्टों के गाँव में रहना, कुलहीन की सेवा, कुभोजन, कर्कशा पत्नी, मूर्ख पुत्र तथा विधवा पुत्री ये सब व्यक्ति को बिना आग के जला डालते हैं ।
मूर्खश्चिरायुर्जातोऽपि तस्माज्जातमृतो वरः। मृतः स चाल्पदुःखाय यावज्जीवं जडो दहेत्॥
मूर्ख पुत्र के चिरायु होने से मर जाना अच्छा है, क्योंकि ऐसे पुत्र के मरने पर एक ही बार दुःख होता है, जिन्दा रहने पर वह जीवन भर जलता रहता है ।
अपुत्रस्य गृहं शून्यं दिशः शून्यास्त्वबान्धवाः। मूर्खस्य हृदयं शून्यं सर्वशून्यं दरिद्रता॥
पुत्रहीन के लिए घर सुना हो जाता है, जिसके भाई न हों उसके लिए दिशाएं सूनी हो जाती हैं, मूर्ख का हृदय सूना होता है, किन्तु निर्धन के लिए सब कुछ सूना हो जाता है ।
लुब्धमर्थेन गृह्णीयात्स्तब्धमञ्जलिकर्मणा। मूर्खश्छन्दानुरोधेन यथार्थवादेन पण्डितम्॥
लालची को धन देकर, अहंकारी को हाथ जोड़कर, मूर्ख को उपदेश देकर तथा पण्डित को यथार्थ बात बताकर वश में करना चाहिए ।
शुनः पुच्छमिव व्यर्थं जीवितं विद्यया विना। न गुह्यगोपने शक्तं न च दंशनिवारणे॥
जिस प्रकार कुत्ते की पुंछ से न तो उसके गुप्त अंग छिपते हैं और न वह मच्छरों के काटने से रोक सकती है, इसी प्रकार विद्या से रहित जीवन भी व्यर्थ है । क्योंकि विद्याविहीन मनुष्य मूर्ख होने के कारण न अपनी रक्षा कर सकते है न अपना भरण- पोषण ।
कुराजराज्येन कृतः प्रजासुखं कुमित्रमित्रेण कुतोऽभिनिवृत्तिः। कुदारदारैश्च कुतो गृहे रतिः कृशिष्यमध्यापयतः कुतो यशः॥
दुष्ट राजा के राज्य में प्रजा सुखी कैसे रह सकती है ! दुष्ट मित्र से आनंद कैसे मिल सकता है ! दुष्ट पत्नी से घर में सुख कैसे हो सकता है ! तथा दुष्ट – मूर्ख शिष्य को पढ़ाने से यश कैसे मिल सकता है !
अहिं नृपं च शार्दूलं वराटं बालकं तथा। परश्वानं च मूर्खं च सप्तसुप्तान् बोधयेत्॥
सांप, राजा, शेर, बर्र, बच्चा, दूसरे का कुत्ता तथा मूर्ख इनको सोए से नहीं जगाना चाहिए ।
पृथिव्यां त्रीणी रत्नानि अन्नमापः सुभाषितम् । मूढैः पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा विधीयते ॥
अनाज, पानी और सबके साथ मधुर बोलना – ये तीन चीजें ही पृथ्वी के सच्चे रत्न हैं । हीरे जवाहरात आदि पत्थर के टुकड़े ही तो हैं । इन्हें रत्न कहना केवल मूर्खता है ।