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बारिश
ढंक दो
पानी भींग रहा है बारिश में
ठंड न लग जाए ।
बरस रहे हैं पेड़ हज़ारों पत्तों से
भींग रही है हवा झमाझम खोले केश
छींक न आए ।
निर्वसन नदी तट से दुबकी दुबकी लगती
बादल अपनी ओट में लेके चूम रहा है बांह कसे ।
चोट सह रही हैं पंखुरियां
पड़ पड़ पड़ पड़ बूंदों की
अमजद खां के स्वर महीन संतूरों पर
जाकिर के तबलों की थापें
बारिश है ले रही अलापें बीच बीच में भीमसेन सी
गंध बेचारी भींग न जाए इस बारिश में ।
बहुत दिनों के बाद खेलतीं बैट-बाल
गलियां सड़कों पर उतर आई हैं
तड़ तड़ तड़ तड़ बज उठती बूंदों की ताली
बिजली चमकी
या चमका है सचिन का बल्ला
या गिर गया सरक के पल्ला स्वर्ण कलश से
बोल रही है देह निबोली भीगी भीगी
सिहर उठे मौसम के सपने
ढंक दो ,
यह काला चमकीलापन शब्दों का
खुरच न जाए इस बारिश में ।
* देवेंद्र आर्य
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